मैं कहता आँखिन देखी : प्रो. मैनेजर पाण्डेय




साहित्य का भविष्य और भविष्य का साहित्य

अरुण देव:
L.P.G.(लिब्रलाइजेशन,प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन) के इस शोर में बाज़ार के बाहर की हर वह चीज़ जिससे बाज़ार को खतरा है मर रही है, ऐसा कहा जा रहा है. विचार, इतिहास और साहित्य की मृत्यु की घोषणाएँ हुई हैं. भारत में हिंदी जैसी भाषा में लिखे जा रहे साहित्य का भविष्य आप को कैसा दिखता है.


प्रो. मैनेजर पाण्डेय:
भूमंडलीकरण और निजीकरण के इस दौर में बहुत सी चीजों की मृत्यु की जो घोषणाएँ हुई हैं उनका उद्देश्य लगभग भूमंडलीकरण और निजीकरण को मजबूत करना है. घोषणा करने वाले ये वो लोग हैं जिन्हें विचारों की दुनिया में उत्तर–आधुनिक कहा जाता है. सच्चाई यह है कि इनमें से किसी भी चीज की मृत्यु नहीं हो रही है. कहीं भी. आयर लैंड के प्रसिद्ध कवि सीमस हीनी ने अपनी एक कविता में लिखा है-
              post this
              post that
              but not a thing is past.  
यह भी उत्तर, वह भी उत्तर पर कुछ भी अतीत नहीं.

साहित्य की मृत्यु की घोषणा हुई है- पर सारे संसार में साहित्य लिखा जा रहा है, पढ़ा जा रहा है. मैं यह तो मान सकता हूँ कि साहित्य की पुरानी धारणा की मृत्यु हो गई है पर साहित्य ही मर गया है यह समझ में नहीं आता.


अरुण देव:
साहित्य अपने पाठकों तक पहुंचता है तभी सार्थक होता है. ६० करोड़ की जनसंख्या वाला  हिंदी समाज बमुश्किल किसी बड़े साहित्यकार की किसी पुस्तक की १० हज़ार प्रतियाँ खपा पाता है. औसत हिंदीवाला पाठ्यक्रम के बाहर के साहित्यकार से लगभग अंजान है. हिंदी समाज और साहित्य की यह क्या विडम्बना है.


प्रो. मैनेजर पाण्डेय:
हिंदी में साहित्य और व्यापक जनता के बीच संपर्क सूत्र काफी कमजोर है. किताबे कम संख्या में छपती और बिकती हैं. पर यह याद रखना चाहिए किसी भी समाज में साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में क्रियाशील लोग बहुमत में नहीं होते हैं. पहले के लेखक पाठकों को ध्यान में रखकर साहित्य लिखते थे इसके सबसे अच्छे उदाहरण प्रेमचंद हैं. इस वर्ष के पुस्तक मेले के सर्वेक्षण के अनुसार सबसे अधिक प्रेमचंद की किताबें बिकी उसका एक कारण यह भी था कि कापीराईट से मुक्त प्रेमचन्द को सभी प्रकाशकों ने छापा और खूब बेचा. 

इस बीच यह हुआ है कि जटिलता को साहित्य का एक गुण मान लिया गया है. पाठकों की संवेदनशीलता और ग्रहणशीलता को उपेक्षा की दृष्टि से देखा जा रहा है. और लोकप्रियता को साहित्य का एक दोष माना जा रहा है. इसका परिणाम यह हुआ है कि साहित्य की जो सबसे पुरानी और प्रसिद्ध विद्या -कविता है वह सबसे कम पढ़ी जा रही है. भक्ति काल के कवि आज भी हिंदी में लोकप्रिय हैं. निराला भी जो कठिन कवि माने जाते हैं- क्योकि उन्होंने सब तरह की कविताएं लिखी है. नागार्जुन लोकप्रिय हैं.

हाल की कविता, कवि और उनके संग्रहों के बारे में अगर बात करें तो कविओं के  इष्ट मित्रों को छोड़कर उन्हें कोई नहीं जानता. जो सबसे बड़ी बात है वह यह है कि हिंदी साहित्य शहरी मध्यवर्ग में पैदा होता है वहीँ उसकी चर्चा होती है और शहरी मध्यवर्ग के बीच ही वह पढ़ा जाता है. इसके बाहर उसकी कोई पहुँच नहीं है.

सारा दोष पाठकों का नहीं है. साहित्य को अलोकप्रिय बनाने में बड़ा हाथ साहित्यकारों का भी है. इस बीच हिंदी में कुछ ऐसे लोग आएं हैं जो हिंदी के नहीं है. ऐसा नहीं है कि केवल साहित्य का संकोच हुआ है उसका विस्तार भी हो रहा है.


अरुण देव:
बाज़ार आज हमारा नियन्ता बन बैठा है.  साहित्य की मुक्ति बाज़ार के साथ है या बाज़ार के खिलाफ.  


प्रो. मैनेजर पाण्डेय
बाज़ार और साहित्य के संबंधो पर बात करते हुए दो चीजों का ध्यान रखना चाहिए. बाज़ार एक ऐसी व्यवस्था की उपस्थिति है जिससे हम चाह कर भी बच नहीं सकते. बाज़ार पूंजीवाद से पैदा हुआ है और पूंजीवाद की बर्बरता के खिलाफ सारी कलाएं साहित्य समेत पिछले कई शताब्दियों से खड़ी हैं. साहित्य और कला के क्षेत्र से किसी एक ऐसे व्यक्ति का नाम आप नहीं बता सकते जिसने पूंजीवाद के समर्थन में कोई कलाकृति बनाई हो. पूंजीवाद की एक विशेषता यह है कि वह जहां अपने समर्थन को खरीदता है अपने विरोध को भी खरीद लेता है. खरीद बिक्री की क्षमता उसकी बुनियादी विशेषता है.

एक आंदोलन चला पहले कला में फिर साहित्य में कि ‘कला कला के लिए है’ समाज से उसका कुछ लेना देना नहीं है. यह आरम्भिक पूंजीवाद का दौर था. यह कला के बाजारूकरण के विरुद्ध विद्रोह था. अक्सर  इस आंदोलन के बारे में लोगों में भ्रम रहता है खासकर सामाजिक चेतना के समर्थकों के बीच. यह गलत कारणों से नहीं पैदा हुआ था. एक उदाहरण आपको देता हूँ-

पूंजीवाद का मार्क्स से बड़ा विरोधी मार्क्स से पहले कोई नहीं था और विश्वास करता हूँ भविष्य में शायद ही कोई होगा. इधर जो मंदी का दौर चला है उसमें मार्क्स की किताब पूंजी अचानक बहुत लोकप्रिय हो गई. उसके चार-चार संस्करण प्रकाशित हुए. अखबार बता रहे थे कि उसे सरकोजी पढ़ रहे हैं इंग्लैंड के प्रधानमत्री पढ़ रहे है, अमेरिका के आर्थिक नियन्ता पढ़ रहे हैं. और सबने एक स्वर में स्वीकार किया कि पूंजीवाद की बुराईयों और अच्छाइयों को समझने के लिए मार्क्स से बेहतर मार्गदर्शक कोई नहीं है. मार्क्स ने कठिन जीवन जीते हुए अपनी किताबें लिखी और पूंजीवाद को समझने का रास्ता दिया.पर पूंजीवाद ने उस किताब को भी खरीदा और अपने संकट को समझने के लिए उसका उपयोग करना शुरू कर दिया. एक तरह से मार्क्स के विचार पूंजीवाद के लिए संकट मोचन की स्थिति में आ गये.

साहित्य का अपना स्वभाव है मनुष्यता के पक्ष में खड़ा होना. जो भी मनुष्यता का नाश करता है साहित्य उसके विरोध में खड़ा होता है. पूंजीवाद से अधिक मनुष्यता का विरोधी कोई नहीं. साहित्य बाज़ार के दुष्प्रभावों का विरोध करते हुए आगे भी जीवित रहेगा.    
         
        प्रो. मैनजर पाण्डेय वरिष्ठ आलोचक विचारक हैं. साहित्य की सामाजिकता और उसकी सामाजिक जिम्मेदारी के प्रबल पैरोकार.




हिंदी आलोचना की परम्परा पर एक बातचीत यहाँ भी है.

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  1. सबसे पहले तो भाई अरूण जी आपको बधाई... और पत्रिका के सुनहरे भविष्य के लिए अशेष शुभकामना...

    साहित्य का अपना स्वभाव है मनुष्यता के पक्ष में खड़ा होना. जो भी मनुष्यता का नाश करता है साहित्य उसके विरोध में खड़ा होता है.

    बहुत अच्छी बात-चीत आगे भी बढ़ने की उत्सुकता रहेगी...

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  2. अरुण जी ...बहुत सार्थक बात ...बधाई आप को ....जरे रकेहं ऐसा अच्छी बातें ....दिल को सुकून लगा ये सब देख कर !!!!!!!निर्मल पानेरी

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  3. आदरणीय अरुण देव जी
    अभी साहित्य चर्चा के अंतर्गत आपकी और प्रसिध्ध लेखक आलोचक विचारक श्री मेनेजर पाण्डेय जी की बातचीत पढी!बहुत सार्थक और ज्ञानवर्धक!धन्यवाद!यद्यपि सम्पूर्ण वार्तालाप ही अत्यंत महत्वपूर्ण और रोचक है परन्तु कुछ प्रकरण जो मेरे संशय के विषय थे उनका कुछ स्पष्टीकरण हुआ !उनके अंतर्गत,आपके द्वारा पूछे गए हिंदी की लोकप्रियता के ज़वाब में मेनेजर पाण्डेय जी के ज़वाब से मैं सहमत हूँ की ''जटिलता को साहित्य का एक गुण मान लिया गया है!पाठकों की संवेदन शीलता और ग्राहंशीलता को उपेक्षा की द्रष्टि से देखा जाता है !इसीलिए कविता कम पढी जा रही है !''आपको यदि स्मरण हो की लगभग एक हफ्ते पहले मैंने यही प्रश् आपसे किया था की'' किसी रचना की क्लिष्टता और दुरुहता क्या उस रचना की श्रेष्ठता का मापदंड और सुबूत होती है ?और यदि हाँ तो क्या एक सीमित बौद्धिक वर्ग को ही उसे पढना चाहिए?''!मंदी के दौर में पूंजीवाद के लिए मार्क्स के विचारों (पुस्तक) की उपयोगिता ,का उदाहरण अत्यंत सटीक और रोचक!
    सारगर्भित और उपियोगी चर्चा पढवाने के लिए धन्यवाद्!

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  4. अरुण भाई…आगाज़ शानदार है और सफ़र उससे भी शानदार होना ही है…हमसे जो भी सहयोग अपेक्षित हो बस आदेश करें

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  5. आलोचना अगर खरी और बेख़ौफ़ हो तो कवि की इस आत्म -मुग्धता को कम किया जा सकता है लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा हो नहीं पा रहा . वर्तमान समय में आलोचक आलोचना नहीं विज्ञापन लिखने में ज्यादा रूचि दिखा रहे हैं .

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  6. Aapne ek Jaroori kam kiya hai bhai, Badhai.

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  7. with hope that work continuous........

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  8. badhai, agar bazarwaad ko badhiya se samjhane kikripa karen to khushi hogi

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  9. Blog jagat me is mahatvpurn kadam ke liye shbhkamnaye.

    Pramod Tambat
    www.vyangyalok.blogspot.com

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  10. achchha likhte hain likhte rahiye dear

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  11. बहुत सार्थक बात ...बधाई आप को|

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  12. मैनेजर पाण्डेय से की गयी बातचीत अच्छी है। लेकिन कुछ और बात होनी चाहिए।

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  13. बहुत सुन्दर बहुत सार्थक ,पाण्डेय जी इस दौर के सचमुच काम करने वाले आलोचक हैं ,बाबाओं कि तरह हर मंच से अन्य आलोचकों की तरह प्रवचन देने वाले नहीं .उन्होंने इस बातचीत में हर उस मुद्दे को उठाया है जिससे ना सिर्फ साहित्य संघर्ष कर रहा है बल्कि पूरी सामजिक व्यवस्था और मनुस्यगत सम्वेदनाएं भी.सार्थक ,और धन्यवाद आपको की समालोचना के द्वारा आप ऐसा सार्थक प्रयास कर रहें हैं

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  14. It is seer stupidity to say that bazaar has come with or created by capitalism. Bazaar had been in existence for thousands of years prior to to the emergence of capitalism. Let him read Karl Polanyi's The Great Transformation (1944). Polanyi was a great Marxist. He can refer to the works of Kalidas and Panini.

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  15. अरुण देव जी ,मैनेजर पाण्डेय जी से आपकी वार्ता बहुमूल्य निष्कर्षों तक पंहुचती है ! मैं मैनेजर पाण्डेय जी से पूरी तरह सहमत हूँ ! आज संपर्क के लगभग सारे सूत्रों का बाजारीकरण हो चुका है , ऐसे में बाज़ार के बीच से ही हमें इसके विरोध की बात लोगों तक पहुंचानी होगी ! इस बाज़ार की एक कमजोरी है कि यह लोकप्रिय और बिकाऊ चीज़ की उपेक्षा नहीं कर पाता और उसे बेंचकर मुनाफा कमाने का लोभ नहीं छोड़ पाता ! अतः साहित्य को अधिक बिकाऊ बनाना होगा और इसके लिए उसे लोगों को जनभाषा में उपलब्ध कराना होगा !

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  16. Manager Pandey's comment that "bazaar Punjiwad se paida hua hai" shows his utter ignorance. In fact bazaar has been in existence since time immemorial. This great man from Hindi literary world should refer to my book "Bazaar: Ateet and Vartman", published last year by Grantha Shilpi.

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  17. पूंजीवाद से अधिक मनुष्यता का विरोधी कोई नहीं. साहित्य बाज़ार के दुष्प्रभावों का विरोध करते हुए आगे भी जीवित रहेगा. वाआआआह..युग-सत्य.. मैनेजर पाण्डेय सुधी चिंतक | गोरखपाण्डेय और मैनेजर पाण्डेय का जसम का सानिध्य स्मरण कर आज भी अभिभूत| अर्जुन देव जी आप सत्कार्य कर रहे हैं | बधाई

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